Friday, October 15, 2010

लेखिका की कलम से...

मुझसे कई बार लोगों ने कहा कि मेरी कवितआओं में आंसू ज्यादा हैं तो मैनें भी इसे महसूस किया, मैनें पाया जो कविताओं में जो आंसू मैंने छोडे है उसमें भी जिन्दगी के अक्स छुपे हैं जिन्दगी को मैने कई रूप में महसूस किया है हालांकि मेरी सोच हमेशा सकारात्मक रही है। काफी हद तक मैं जिन्दगी को कविता में पिरोने को लेकर संतुष्ट भी रही हूं । रेखाचित्र के जरिये कलाकार महेश गुप्ता और कलाकार परमात्मा ने कविता को अपनी परिकल्पना ने साकार किया है। आपको यह प्रयास कैसा लगा कृपया अवगत करायें।

हम तो हर दिन जीते रहे
सांसो से धडकन पिरोते रहे
जिन्दगी चलती रही
हम साथ जिन्दगी के चलते रहे।।




Sunday, October 25, 2009

अंतिम समय तक कला के प्रति संजीदा थे चित्रकार पाबलो पिकासो






जयंती पर विशेष

विश्वविख्यात महान चित्रकार पाबलो पिकासो अपनी मौत से कुछ ही दिन पहले अपनी करीब दो सौ कलाकृतियों की एक शानदान प्रदर्शनी आयोजित करने की योजना बना रहे थे, लेकिन उनकी यह योजना उनके जीते जी पूरी नहीं हो पायी।
अपने अद्भुत कला कौशल के जरिए इस महान चित्रकार ने फ्रांस की सीमाओं को पार करते हुए दुनिया के हर कोने में अपनी जगह बनाई और ऐसा कहा जाता है कि इनफ्लुएंजा से पीड़ित पिकासो आठ अप्रैल 1973 को अंतिम सांस लेने से कुछ समय पहले तक भी चित्रकारी कर रहे थे। इस वर्ष 25 अक्तूबर को पिकासो के चाहने वाले उनके जन्मदिन पर अमेरिका की कंसास सिटी के तोपेका में इस महान चित्रकार की तकनीक और शैली का इस्तेमाल करते हुए अपनी रचनाओं को उन्हें समर्पित करेंगे।
तोपेका स्थित वाशबर्न यूनिवर्सिटी पिकासो की याद में मोलवेन आर्ट म्यूजियम में एक कला कक्षा का आयोजन करने जा रही है। कला के प्रति उनके अद्भुत समर्पण की बदौलत ही वह दुनिया के लिए विशाल कला संग्रह छोड़कर गए। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे अपने पीछे अपनी पत्नी जैकलिन और बेटे पाबलो के अलावा कई अवैध संतानें भी छोड़ गए। पिकासो की मौत से एक साल पहले 1972 में पेरिस के लोवरे संग्रहालय ने पिकासो के 90वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में ‘पिकासो सिंहावलोकन' का आयोजन किया था। यह पहली बार था जब संग्रहालय ने किसी कलाकार के जिंदा रहते हुए उसके चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की हो। उनकी मौत पर वास्तुशिल्पी हेनरी मूर ने कहा था कि राफेल के बाद कला जगत को पिकासो संभवत: सर्वाधिक ‘प्रकृति प्रदत्त उपहार' थे। उस समय फ्रांस के संस्कृति मंत्री मौरिस द्रोयू ने पिकासो को एक ऐसा महान चितेरा बताया था जिसने ‘अपनी सदी को रंगों से सराबोर' कर दिया।
पिकासो का जन्म 1881 में स्पेन में एक कला अध्यापक के घर हुआ था और मात्र 12 साल की उम्र में बार्सिलोना में उनके चित्रों की पहली प्रदर्शनी लगायी गयी थी।
ऐसा माना जाता है कि अपने पूरे 90 साल के जीवन में पिकासो ने करीब 20 हजार पेंटिंग्स, शिल्प तथा रेखाचित्र बनाए। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पेंटिंग ‘गुएर्निका' थी जो स्पेनिश गृह युद्ध में छोटे से कस्बे बास्क को तहस नहस करने के खिलाफ उनके आक्रोश का प्रतिबिम्ब थीं। इसे पेरिस वर्ल्ड फेयर में 1937 में प्रदर्शित किया गया था। पिकासो जीवन पर्यन्त कम्युनिस्ट रहे और जनरल प्रांको की सेनाओं द्वारा पराजित रिपब्लिकन सरकार का समर्थन किया। प्रांकों की जीत के बाद वह कभी अपने गृह नगर नहीं लौटे। ऐसा माना जाता है कि पिकासो अपने पीछे करीब पांच करोड़ डालर की संपत्ति छोड़ गए थे जिसके वैध वारिस उनकी पत्नी जैकलिन और बेटा पाबलो थे। पाबलो उनकी पहली रूसी पत्नी से पैदा हुई संतान थी।
कहा जाता है कि पिकासो की कम से कम तीन अवैध संतानें भी थीं और इसी के चलते उनकी मौत के बाद उनकी विरासत को लेकर विवाद पैदा होने की आशंकाएं जतायी गयी थीं। आठ अप्रैल 1973 को पिकासो की प्रैंच रिवेरा में कान स्थित अपने घर में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी। पिकासो स्पेन में पैदा हुए लेकिन उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय प्रांस में गुजारा था। निजी जिंदगी में पिकासो चाहे जैसे भी रहे हों लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि वे अपनी सदी के एक ऐसे महान चित्रकार थे जिनका न केवल नाम सदियों जिंदा रहेगा बल्कि हर पीढ़ी उनकी कला की रौशनी में शरण पाना चाहेगी।


Saturday, October 24, 2009

स्त्री विर्मश


[मूर्ति कला के जरिये कलाकार ने स्त्री के जीवन विर्मश को दर्शने का प्रयास किया है]

Thursday, October 22, 2009

चित्रकार नहीं हैं मकबूल फिदा हुसैन:अनुजा

कलाकारों के गलियारों में कही जा रही बात भले ही कुछ लोगों को नागवार गुजरे पर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। अब नामचीन चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को ही ले लीजिए देश ही नही विदेशों में अपनी खासी पैठ बना चुके मकबूल को एक शख्शियत ने चित्रकार मानने से ही खारीज कर एक बहस छेड दी है। यह अलग बात है कि मकबूल ने जीवन का एक अध्याय कला के प्रति सर्मपित किया है हालांकि अपनी चित्रकारी को लेकर मकबूल फिदा हुसैन कई बार विवादों में रह चुके हैं। अनुजा ने अपने ब्लाग में मकबूल फिदा हुसैन के बारे में जो लिखा है उसे कलाकारों के बीच परोसने का मात्र मैं मध्यम बन रहा हूं। हालांकि कलाकरों के लिए यह बहस का एक मुद्दा जरुर है।




मकबूल फिदा हुसैनः चित्रकार या हुस्नप्रेमी!
मकबूल फिदा हुसैन को मैंने न कभी चित्रकार माना, न ही चित्रकार की हैसियत से उन्हें देखने की कोशिश की। हुसैन साहब मुझे चित्रकार कम 'बेकार' ज्यादा लगते हैं। हुसैन साहब के पास बेकार की बातों को कहने-सोचने का वक्त काफी है और दिमाग भी। हुसैन साहब के प्रेमी उनकी बेकार की बातों और कथ्य को प्रगतिशिलता की मिसाल कहते-बताते हैं। उनकी नजर में हुसैन साहब सिर्फ चित्रकार ही नहीं, बल्कि 'चित्रकारी के भगवान' हैं। हुसैन साहब को भगवान मानकर कहीं-कहीं पूजा भी जाता है। तथाकथित प्रगतिशील जमात उनकी शान में उनकी हैसियत से कहीं ज्यादा 'कसीदे' पढ़ती व गढ़ती है। हुसैन साहब की आड़ी-तिरछी लकीरों को वे मार्डन या प्रोग्रेसिव आर्ट कहते-बताते हैं। वे उनकी आड़ी-तिरछी लकीरों पर इस कदर फिदा हैं कि अपना दिल तक उन्हें निकालकर दे सकते हैं, अगर वे कहें।
खैर, मैं कला की न कोई बहुत बड़ी जानकार हूं, न ही कला मेरा विषय रहा है। परंतु कला के प्रति रूचि और संवेदना को रखते हुए तस्वीरों के अच्छे-बुरे पक्ष को समझ तो सकती ही हूं। पता नहीं क्यों, हुसैन साहब की चित्रकला में मुझे न कला नजर आती है न संवेदना न ही कोई संदेश। आड़ी-तिरछी लकीरों के बीच रंगे-पूते चित्र पता नहीं किस आधुनिक कला को दर्शाते हैं, ये या तो हुसैन साहब जाने या उनके अंध-प्रेमी।
बहरहाल, मुद्दे पर आती हूं। हुसैन साहब कला से ज्यादा हुस्न के दीवाने रहते हैं। कमसीन शरीर उन्हें अच्छा लगता है। कहना चाहिए, दीवानगी की हद तक अच्छा लगता है। कभी किसी जमाने में वे माधुरी दीक्षित के अन्यन प्रेमी हुआ करते थे। उन्हें, दरअसल, माधुरी से नहीं उनके 'कमसीन हुस्न' से प्यार था। हुसैन साहब ने माधुरी की कई पेंटिंगस बनाईं। जब पेंटिंगस से दिल न भरा, तो उन्होंने उनके साथ एक 'असफल फिल्म' भी बना डाली। उस फिल्म को मैंने भी देखा था, पर अफसोस फिल्म के अंत तक समझ नहीं पाई कि हुसैन साहब दर्शकों को आखिर कहना, दिखाना या समझाना क्या चाहते हैं?
समय गुजरा। माधुरी की शादी हुई। उनका हुस्न भी थोड़ा ढला। देखते-देखते हुसैन साहब के दिलो-दिमाग से माधुरी की तस्वीर उतरने लगी और नई-नई तस्वीरें वहां जगह पाने लगीं। हुसैन साहब करते भी क्या तमाम पुरुषों की तरह उन्होंने भी पुरुष-दिमाग ही पाया है।
सुना है कि अब उनकी रंगीन दुनिया में एक और नई हुस्नवाली आ गई है। नाम है, अमृता राव। जी हां, 'विवाह' और 'वेल्कम टू सज्जनपुर' वाली अमृता राव। फिदा हुसैन अमृता राव पर फिदा हैं। वे उनके साथ ईद मनाना चाहते हैं और 'वेल्कम टू सज्जनपुर' भी देखना चाहते हैं। अमृता के हुस्न की तारीफ में हुसैन कहते हैं, 'अमृता तो खुदा की बनाई हुई परफेक्ट पेंटिग हैं। उनकी बाडी लैंग्वेज इस कदर खूबसूरत है कि उसे बस कैनवस पर ही कैपचर किया जा सकता है।' हुसैन साहब, जहां तक मुझे ध्यान पड़ता है, कुछ ऐसी ही बातें आपने माधुरी दीक्षित को देखकर भी कही थीं। यानी आप नए-नए हुस्न को देखकर अपनी कला के मापदंड़ों में रदो-बदल करते रहते हैं, मुबारक हो।
हुसैन साहब शायद इतनी प्रसिद्धि कभी नहीं पा पाते, अगर उन्होंने उन विवादास्पद चित्रों को न बनाया होता। भोंड़े चित्रों को बनाकर उन्हें 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' कहना प्रगतिशीलों और खुद हुसैन साहब को गंवारा हो सकता है, लेकिन मैं उसे न कला मानती हूं, न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। मेरा एक सवाल है प्रगतिशीलों से कि क्या हुसैन साहब को इतनी ही 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' अपने धर्म के ईश्वर के स्कैच को बनाने के लिए मिल या दी जा सकती है?
चलो मान लेते हैं, हुसैन साहब के वे चित्र 'कला की अभिव्यक्ति' थे परंतु उस अभिव्यक्ति में कितनी कला या क्या संदेश छिपा था, जरा यह भी तो बताने का कष्ट करें।
आगे चलकर जब सांप्रदायिक विवाद खड़ा हुआ, तब हुसैन साहब चुपचाप यहां से खिसक लिए। उनमें तो तसलीमा नसरीन जैसा हौसला भी नहीं था कि यहां आकर एक दफा अपने विरोधियों से रू-ब-रू होते। लेकिन तसलीमा ने ऐसा किया। उसकी सजा भी उन्हें मिली। मगर वे हारी नहीं। अरे, हुसैन साहब तो मर्द हैं, तसलीमा तो फिर भी औरत हैं। कोई कुछ कहे या माने, मगर मेरी निगाह में तसलीमा का कद हुसैन साहब से कहीं ज्यादा बड़ा और सम्मानीय है और हमेशा ही रहेगा।
खैर, अमृता के साथ हुसैन साहब की क्या 'कलात्मक खिचड़ी' पकती है, इसका हम सबको इंतजार रहेगा।


http://anuja916.blogspot.com/2008_09_01_archive.html

Tuesday, October 20, 2009

ब्राह्मण समाज करेगा राजीव मिश्र को सम्मानित

लखनऊ। कैनवस पर अपनी अभिव्यक्ति उकेरने वाले कालाकार राजीव मिश्र ने रंग और तूलिका से काफी प्रयोग किये। बॉल पेन से कृतियों की श्रंखला अभी बंद ही नहीं हुई थी कि राजीव ने मूर्ती कला में भी नया प्रयोग कर कलाकारों के बीच एक नई बहस छेड दी है। हालांकि राजीव मिश्र के कला प्रेमियों की लम्बी फेहरिस्त है। राजीव को कला के प्रति सर्मपण और योगदान के लिए आने वाले दिनों में ब्राह्मण समाज सम्मानित करेगा।

Friday, October 16, 2009

प्रेम और ज़िन्दगी


फूस की छत,पूस की रात
थोडे से अंगारे,कंबल का साथ
हाथ में तेरे हाथ
क्या बात-क्या बात
प्रेम गूंजता है,
कदम सडकों पर रह जायें लोटते
ख्वाब देखते आंख अधूरे
रोकते हर ख्वाब को और लौटा देते
नहीं अभी नहीं
नहीं अभी नहीं
ज़िन्दगी कसमसाती है।


[कविता पर महेश की उकेरी गई कृति]

जिन्दगी एक जश्न है






जिन्दगी एक जश्न है
हर मोडपर टूटते ख्वाब
बिखरते,ख्यालात
परेशानियां उलझने
इस सबको समेटे हुए
जिन्दगी एक जश्न है
थोडी सी खुशी और
दर्द के अंबार
ठोकर खा खा कर उठता रहा इंसान
जूझता,झिझोडता फिर भी
जिन्दगी एक जश्न है
एक दौड,एक प्यास
जीवन के प्रारम्भ से
जीवन के अन्त तक
थक कर बैठ जाये फिर भी
जिन्दगी एक जश्न है।
[चित्रकार महेश गुप्ता का रेखाचित्र]
Attention! This is not a healthy practice.